रविवार, 10 अगस्त 2014

पराया..

क्या चाहूँ
और क्या हो जाता है,
जिसे चाहूँ
वो पराया हो जाता है।

इश्क़ की आबो-हवा
मेरी महफ़िल में न थी कभी
जीता रहता हूँ ग़लतफ़हमी में अक्सर
करीब जाऊं तो दिलबर मेरा
बस एक साया हो जाता है।

समझ भी न पाया कभी
और जान भी न पाया कभी
ये इश्क़ है या और कुछ
इक पल में ही किया धरा
सब जाया हो जाता है।

या रब!
बहुत देखी तेरी खुदाई
मिला के क्यूँ दी ये जुदाई
कोई अब तक न अपना सका इस दिल को माही!
और हमेशा ये दिल ही क्यूँ पराया हो जाता है।

- महेश बारमाटे "माही"

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