बुधवार, 6 अगस्त 2014

यकीन नहीं होता...

यकीन नहीं होता
कि तू अब मुझसे दूर चली गई है
कि जाते - जाते तू मुझसे भी
मशहूर हो गई है।

तुझे पाने की चाहत थी
अपना बनाने की चाहत थी
कुछ – कुछ तेरी भी हसरत थी
के तुझे भी मुझसे मुहब्बत थी।

मुहब्बत थी ऐसे
के एक दूजे का होना था
खो कर तेरी बांहों में
बस तुझमें ही खोना था

हो कर बस तेरा
तुझमें एक दुनिया बसाना था,
और उस दुनिया में माही!
मुझे तो बस तेरा हो जाना था।

पर शायद
किस्मत को अपनी
ये मंजूर न था
हालात तो थे
पर मैं मजबूर न था

मजबूरी थी तेरी
मजबूरी थी मेरी
दिलों के दरमियान
न ये दूरी थी मेरी
न ये दूरी थी तेरी।

फिर भी हम
बिना मुलाक़ात के ज़ुदा हो गए
तुम कुछ यूं रूठे मुझसे
के बिना बात के खफा हो गए।

हम एक हो सकते थे शायद
जैसे हर रोज हुआ करते थे
दूरियाँ मायने नहीं रखती थी
के ये दिल रोज मिला करते थे।

खैर! जो हुआ
सो हुआ
आज भी तेरी तस्वीर निहारता हूँ।
तू खफा है
मेरी भी यह सजा है
के तुझे हर घड़ी पुकारता हूँ।

यकीन नहीं होता
अब भी
के तू मुझसे दूर चली गई है
तेरी तस्वीर है बातें करती मुझसे
के किस्मत तो कहीं मेरी
छली गई है।

तू रहे जहाँ
बस खुश रहे
अश्क-ए-दिल से भी तुझे दुआ देता हूाँ
कतरा – कतरा तुझे याद करता है माही!
हर रोज अश्कों का समुंदर मैं
बस तेरी याद में यूं ही पीता हूँ।

- महेश बारमाटे “माही”

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