मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

वो मेरे छत की मुंडेर पर बैठी कोयल...

वो मेरे छत की मुंडेर पर बैठी कोयल
हर रोज सुबह एक गाना गाती है ...
जाने क्या ग़म है उसे
या है कोई बड़ी ख़ुशी
जो वो मुझे सुनाना चाहती है ?

मैंने सुना था के
कोयल तो बस
आम के बागों में ही गाना गाती है।
पर फिर क्यों वो हर सुबह
मेरे ही छत पे कुछ गुनगुनाती है ?

यूँ तो सारी कोयलें, एक ही राग में गाना गाती हैं...
पर ये कुछ ख़ास है,
के ये तो हर रोज
अपना सुर, अपना राग
नहीं दोहराती है...।

देख के उसे
लगता है जैसे
कोई नाता पुराना है
उससे मेरा
तभी तो वो हर सुबह
मुझसे मिलने आ जाती है।
और अपनी कहानी
हर रोज अपने गानों में सुनाती है।

काश !
मैं भी कोई पंछी होता ...
तो उसकी हर बात को समझ पाता।
संग उसके उड़ता, उन्मुक्त गगन में...
और कहता अपनी सारी बातें सारे जग से,
न रखता कोई भी बात कभी अपने मन में।

इंसान हो के भी आज तक,
मैं इंसान न बन पाया हूँ माही !
शायद ये ही बात,
वो हर सुबह मुझे सुना जाती है ...
हर रोज अपना राग बदल के
बस यही वो मुझे समझाती है।

और मैं नादां इंसान
बस यही सोचता रहता हूँ...
के वो तो पागल पंछी है,
जो बस मेरे लिए ही गाती है... ।

- महेश बारमाटे "माही" 

2 टिप्‍पणियां:

  1. प्रिय महेश -- आज आपके ब्लॉग पर आ आपको पढ़ बहुत अच्छा लग रहा है | मैं शब्द नगरी से आपसे परिचित हूँ | आपके ब्लॉग पर पांच लिंकों के माध्यम से आना हुआ | आपकी रचना बहुत ही भावपूर्ण और हृदय स्पर्शी है | सादर और सस्नेह शुभकामना आपको इस सुंदर रचना के लिए |

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    1. धन्यवाद रेणु जी.. आपने मुझे सराहा.. बहुत बहुत आभार

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