बुधवार, 31 अगस्त 2011

किस्मत का लिखा...

सुबह - सुबह तैयार होकर,
निकाल पड़ता हूँ मैं,
अपनों से दूर,
एक ऐसी मंज़िल की ओर,
जिसे पाना मेरी नियति में न था,
पर किस्मत ने मेरी,
इसे पाने पर मुझे मजबूर कर दिया।

आज ज़िंदगी मेरी मुझे,
एक ऐसे रास्ते पर ले जा रही है,
जिसपे चल पाना,
मेरे सपनों में भी दूभर था,
पर जाने ये कैसी घड़ी है,
जिसने मुझे अपने लिए भी
जीने न दिया...

दिल कोस कोस के
हर रोज मुझे
धिक्कार रहा है
और दे रहा है हर पल
ये आवाज,
के ऐ महेश !
आखिर तू ने ये क्या कर लिया ?

अब इस दिल को,
कैसे समझाऊँ मैं,
के शायद मैंने,
कुछ भी नहीं है किया...
बस मेरी किस्मत ने ही मुझे,
शायद खुद के लिए कभी,
कुछ करने ही न दिया।

फिर भी दिल में,
आस अब भी बाकी है,
के फिर एक सपने को
जीना है मुझे,
फिर तैयार होना है,
किस्मत से लड़ने के लिए,
के इस हार ने तुझे "माही"
जीने के लिए
फिर जीवित है कर दिया...।

के जीना ही होगा,
इक सपने को,
इस बार,
वरना मर जाएगा "माही"
हमेशा...., हमेशा के लिए तू,
और हो जाएगा
खत्म तेरा वजूद...
गर तूने अबकी बार,
किस्मत के लिखे को
फिर स्वीकार कर लिया...

- महेश बारमाटे "माही"
29 अगस्त 2011
9:17 am 

चित्र आभार : गूगल (google search)

सोमवार, 15 अगस्त 2011

चलो एक नया जहां बसाते हैं...


सर्वप्रथम आप सभी को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं... 
चलो एक नया जहां बसाते हैं,
कहीं से थोड़ी सी जमीन ढूंढ के लाते हैं...। 

प्यार की बरखा से, स्नेह के नए पुष्प खिलाते हैं,
स्वर्ग से भी बढ़ कर, चलो कोई जहाने-मुहब्बत बसाते हैं...। 

चलो आसमां से तारों की, भस्म चुन के लाते हैं, 
के आज इस धरती को, दुल्हन की तरह सजाते हैं...। 

चलो एक नया जहां बसाते हैं...।

एक ऐसा जहां, जहाँ सरहदों का कोई अस्तित्व न हो...
और बैर, क्रोध, मोह - माया का भी, कोई मित्र न हो...। 

न हो जहाँ कुछ भी कभी तेरा - मेरा,
आपसे भाईचारे से हो शुरू, हमारा हर सवेरा...। 

बस मानवता के एक मात्र धर्म को,
अपने दिलों मे बसाते हैं... 
ऐ मेरे माही !
चल एक नया जहां बसाते हैं...। 

तोड़ के सारी दीवारों को, 
अपनी सोच का दायरा बढ़ाते हैं... 
के थम जाये जहाँ सोच तुम्हारी,
बस उतना ही बड़ा जहां बनाते हैं...। 

छोड़ के आज अपने भाग्य का साथ,
चल आज कर्म को हम अपनाते हैं... 
एक ईश्वर की परिभाषा को,
फिर लिख के दोहराते हैं...। 

सुन ऐ नर, सुन ऐ नारी !
सुन ओ वन और वन्य प्राणी !
चलो मिल जुल कर हम,
एक सपना साकार बनाते हैं। 

आज चुन कर एक नयी राह,
चलो एक नया जहां बसाते हैं...। 

एक नया जहां बसाते हैं
      एक नया जहां बसाते हैं...

- महेश बारमाटे "माही"
12th Aug 2011


मंगलवार, 9 अगस्त 2011

ऐ वीर ! मैदान-ए-जंग में उतर जा...




मैदान-ए-जंग में उतर जा,
ऐ वीर ! तू आज कुछ कर गुजर जा,
आज तुझे है किस बात का इंतजार ?
किसी की खातिर न सही,
देश के लिए तो आज तू मर जा...
ज़िन्दगी में कुछ न किया, न सही...,
पर आज तू देश के लिए कुछ कर गुजर जा...

सोच के तेरा महबूब
देश की इस माटी में है बसा...
और उसके लिए जंग लड़ना 
तेरे लिए है इक खुबसूरत सजा...
बस उस महबूब की आन की ख़ातिर,
और देश की शान की ख़ातिर,
देश के दुश्मनों से आज तू लड़ जा,
ऐ वीर ! देश के लिए आज तू कुछ कर जा...

मत भूल के इसी माटी पे खेल कर, तू है बड़ा हुआ...
इसके ही आशीर्वाद से, अपने पैरों पर तू है खड़ा हुआ...

इसकी ही गोद में है तू ने हर ख़ुशी पायी,
पर आज देश के दुश्मनों को नहीं है इसकी खुशहाली भायी...

दुश्मन को देने को मुँह तोड़ जवाब,
आज तू मैदान-ए-जंग में उतर जा...
ऐ वीर जवान !
आज भारत माँ का क़र्ज़ चुकता कर जा...

आज इस देश को तू,
हर एक ख़ुशी दे दे...
हो सके तो इसकी ख़ातिर मर के तू,
इसे एक नयी जिंदगी दे दे...

देश की इस जंग में तू, अपनी हर एक हद से गुजर जा,
खुशहाल भारत का सपना,
आज हर एक भारतीय की निगाह में सच कर जा...

के बदनसीब है वह इन्सां,
जिसके दिल में वतन के लिए मुहब्बत नहीं...
कोशिशें तो सभी करते हैं,
पर वतन के लिए मर मिटना हर किसी की किस्मत नहीं...

मिला है मौका तुझे, तो भारत माता का सपना पूरा कर जा...
ऐ वीर दोस्त मेरे! आज तू भारत माता के लिए, दुश्मन का सिर कलम कर जा...


महेश बारमाटे "माही"
1 सितम्बर 2010